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~विचार एवं कर्म~

विचार एवं कर्म ही हमारे जीवन की हर अच्छी व बुरी परिस्थिति के हेतु है…

हम बिना विचारे कर्म करते है और जो भी कर्म हम कर रहे हैं या करना चाहते हैं उस पर सिर्फ अपने लाभ के स्तर तक ही विचार किया गया है…
जैसे कि..
बचपन से अबतक हम सबने जीवन के हर पहलू को देखा है..
अच्छा बुरा, सुख दुःख, जीत हार, उतार चढ़ाव, अपमान सम्मान, प्रेम ईर्ष्या..

अब उपरोक्त परिस्थितियों का अर्थ क्या है..?
जबकि हमने तो अपने विचार एवं सोच से सदैव वही करने का प्रयास किया जो स्वयं अपने लिए सही और अच्छा हो..किन्तु क्या ऐसा हुआ की हम सदा से सुखी एवं ख़ुश रहे हों..

क्यूं नहीं रहे सदा ख़ुश ?
वो इसलिए कि हम सदैव सिर्फ अपने अच्छे , अपनी सहजता व लाभ का ही सोचते रह जाते हैं..

विचार का चिंतन व मनन भी सार्थक एवं उपयोगी होना चाहिए..
जिससे भले ही हमें लाभ भी मिले और सिर्फ हमारा ही भला भी हो किन्तु किसी भी अन्य का उससे बुरा नहीं होना चाहिए..

बिना स्वयं के स्वार्थ का विचारे कर्म करना भी हमारे हित में होता है..

स्तरहीन वैचारिक कर्म हमारी कई समस्याओं का कारण है..
और अच्छे विचारों को कर्म में नहीं बदलना भी हमारी समस्याओं का कारण है..

अर्थात् कुछ भी कर्म करते वक़्त यह सम्भव ही नहीं की हम विचार ना करें..हम विचार करते हैं..किन्तु वह सबके लिए या स्वयं अपने लिए सार्थक एवं उपयोगी है अथवा नहीं इस पर चिंतन आवश्यक है..
और वहीं हम मात खा जाते हैं..

क्यूंकि चाहे हम कुछ भी करें हमारे मन मस्तिष्क में उस कर्म के प्रति यह विचार निरन्तर चलायमान रहते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह सही है या नहीं .. हमें लगभग यह अहसास हो जाता है कि यह कार्य उचित है अथवा नहीं किन्तु हम फ़िर भी शायद स्वयं के क्षणिक हित व सुख के लिए वह कर देते हैं जिसका परिणाम हमारे साथ किसी के लिए भी शुभ नहीं होता..

अतः उस कर्म को करते वक़्त जो (सही गलत का) शुभ विचार हमारे मन मस्तिष्क में आया था उस पर गहराई से विचार करते हुए कार्य को करने अथवा ना करने का उचित निर्णय ही हम सबके लिए कल्याणकारी था, है और भविष्य में भी रहेगा…
अतः सार्थक वैचारिक चिंतन ही उचित कर्म की उपयोगिता का प्रमाण भी है और उसका हेतु भी…

संजय पुरोहित