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हम दुखी क्यों हैं..?

हम दुखी क्यों हैं..?
उपरोक्त कथन हर इंसान अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य महसूस करता है..
सभी को कोई दुःख तो होता ही है..अब किसको कितना दुःख है इसका आंकलन कौन व कैसे करे..?

जैसे कि एक व्यक्ति को हाथ में फ्रेक्चर हो गया तो वह दुःखी हो जाता है कि मेरे साथ ही ऐसा क्यूं हुआ..?
वहीं दूसरा व्यक्ति जिसका हाथ ही कट गया.. वह भी दुःखी है कि भगवान मेरे साथ ही ऐसा क्यूं हुआ..?
अब हम जो निष्पक्ष है यह आसानी से कह सकते हैं कि अधिक कष्ट में या दुःख में कौन है..किंतु जिनके साथ यह घटित हुआ है उनसे पूछने पर वे अपने अपने स्तर पर अधिक दुःखी स्वयं को ही बताएंगे..

यही बात अद्भुत भी है और विचारणीय भी..
अब हम अपनी पहली पंक्ति से इसे समझने का प्रयास करते हैं..
“हम दुखी क्यों हैं”..?
इसे और विस्तारित करें तो..
1.हम दुखी हैं..?
2.दुखी क्यों हैं..?
3. हम क्यों हैं..?
4. ‎हम हैं..?

1. हम दुखी हैं ..यही सोचते रहना हमारे दुःख में वृद्धि ही करता है कमी नहीं करता.. अतः विचार यह करना चाहिए कि..
2. ‎दुःखी क्यों हैं..अर्थात् दुःख का कारण क्या है..? मन से , तन से या धन से यदि कारण पता चले तब यह विचार करना ज़रूरी है कि..
3. ‎हम क्यों हैं.. हमारे अस्तित्व का उद्देश्य क्या है..हमारे जीवन की सार्थकता क्या है..क्या हम अपने उद्देश्य की पूर्ति एवं प्राप्ति में सलंग्न हैं या नहीं.. सिर्फ अपने दुखों को ही स्वयं में समेटे कहीं अपना अमूल्य जीवन नष्ट करने पर तो नहीं तुले हैं.. सिर्फ दुखों का विलाप करने से पहले यह भी विचार करना आवश्यक है कि..
4. ‎हम हैं.. क्यूंकि सुख दुःख, हानि लाभ, जीत हार, अच्छा बुरा, बड़ा छोटा, पाप पुण्य, तेरा मेरा, खोना पाना, यह सब कुछ तभी सम्भव है जब हम हों.. हमारा होना ही इन सबके होने का प्रमाण है अतः सबसे अधिक ज़रूरी यही है कि हम हैं..
दुःख की अति एवं उससे उपजे विषाद से अपने जीवन में कोई गलत कदम उठाने से पहले अथवा सदैव अपने ही दुःख को सर्वाधिक मानकर स्वयं को कोसते रहने से पहले थोड़ा संयम व शांति के साथ यह विचार करना अधिक कल्याणकारी है कि हम हैं..इसीलिए यह सब है..यदि हम ही नहीं होंगे तो किसी भी बात का हम पर क्या फ़र्क पड़ने वाला है..
क्यूंकि इंसान आज हर अवस्था में सुखी भी है और दुखी भी .. कैसे है..?
वो ऐसे की दो खिलाड़ियों के मैच में एक कि हार जहां दूसरे की जीत तो निश्चित करती ही है.. साथ ही उसकी हार का दुख दूसरे की जीत का सुख बन जाता है..
अब हम अपनी हार से दुःखी हैं तो दूसरा अपनी जीत से सुखी..तो इसका अर्थ हुआ की सुख जीत का सूचक है और हार दुःख का..अगले दिन हम जीत जाते हैं और वो हार जाता है तो परिस्थितियां भी उलट जाएंगी.. दुःख सुख में परिवर्तित हो जाएगा..
अब सोचने वाली बात यह है कि ऐसा कैसे हुआ ..?
वो इसलिए कि यह संसार ही परिवर्तनशील है..
लेकिन तब.. जब हमने स्वयं इसको किया..
कैसे..? अपने द्वारा उस हार को स्वीकार करके ..हमने जीत की ओर कदम बढ़ाया .. और स्वयं के अस्तित्व एवं उद्देश्य को सही दिशा दी..
इसलिए हमें सबसे महत्त्वपूर्ण अपने अस्तित्व एवं इस धरा पर अपनी उपस्थिति को मानते हुए परमात्मा को हर पल मनुष्य रूप में इस अमूल्य जीवन को देने के लिए धन्यवाद देना चाहिए.. और स्वयं के द्वारा बनाए गए इन सुख एवं दुःख की प्रक्रिया को सहज रूप से स्वीकार करते हुए अपने जीवन को सदकर्मों के द्वारा उचित दिशा प्रदान करनी चाहिए..यही हम सबके लिए कल्याणकारी है..
#संजय पुरोहित#